शनिवार, 29 जून 2024

समीक्षा

 


अरविंद सहज समांतर कोशके बहाने

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

अरविंदकुमार और कुसुमकुमार के संयुक्त श्रम का फल है 1011 पृष्ठों काअरविंद सहज समांतर कोश’; जो राजकमल प्रकाशन से सन् 2006 में प्रकाशित हुआ है तथा हिंदी अकादमी ने उसे वर्ष 2010-2011 केशलाका सम्मानसे सम्मानित किया है।

इस कोशग्रंथ के मुखपृष्ठ पर कोशकार की ओर से लिखा गया है -

आवश्यक जानकारी से भरपूर संक्षिप्त ज्ञान विज्ञान कोश, शब्दार्थ कोश, समांतर कोश और इंडेक्स एक साथ संबद्ध तथा विपरीत शब्दों के क्रौस रैफरेंस के ढेर सारे मुहावरे और वाक्यांश, भारतीय और अंतरराष्ट्रीय शब्दमालिका, बदलते परिप्रेप्रेक्ष्य में अधुनातन प्रामाणिक शब्दावली, 78995 चुनी हुई अभिव्यक्तियाँ, कुल पौने पाँच लाख से अधिक शब्द।

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कवर के पिछले पृष्ठ पर लिखा है -

अरविंद सहज समांतर कोश की रचना एक नई शैली में बहुत सोच-समझकर की गई है।

(टिप्पणी - तकलीफ तो यही है कि कोश की रचना सोच-समझकर नहीं की गई है।)

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इसी तरह अंदर के पृष्ठों पर दिया गया है -

महाप्रयास की पिछली सदी में बड़े काम हुए। बड़े सपने देखे गए। ऐसा ही एक सपना मैं (अरविंदकुमार) ने देखा था। ....26 दिसंबर, 1973, की रात को अचानक कौंधा कि किसी ने अब तक हिंदी थेसारस नहीं बनाया, तो इसका मतलब है कि यह काम मुझे ही करना है। सपना मेरा है, मुझे ही साकार करना होगा।

(टिप्पणी = आपके पहले पं. कृष्णशंकर शुक्ल ने सन् 1935 मेंहिंदी पर्याय कोशतथा डॉ. भोलानाथ तिवारी ने सन् 1954 मेंबृहद् पर्याय कोशबनाया।)

अपनी तरह का पहला और अत्यंत उपयोगी यह कोश भारत की और हिंदी की एक बहुत बड़ी कमी को पूरा करता है।

(टिप्पणी - हिंदी की बात तो समझ में आती है, परंतु भारत की किस कमी को यह कोश पूरा करता है?)

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अरविंद सहज समांतर कोश हमारी समृद्ध संस्कृति का दर्पण है। 21वीं सदी के तेजी से बदलते जीवन की माँग पूरी करने के लिए यह नवीनतम शब्द संपदा को स्थान देता है।

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विज्ञान है तो धर्म भी है। भारत के सभी प्रमुख धर्मों - हिंदू, जैन, सिख, इसलाम, ईसाई, पारसी, यहूदी - को पूरा स्थान दिया गया है। उनके प्रमुख ग्रंथों, देवी-देवता, तीर्थंकर, गुरु, पैगंबर, उपासनालय, मठ मंदिर, पूजा-पाठ, व्रत-उपासना, रोजा-नमाज, संस्कार आदि अपने पूरे गौरव के साथ यहाँ उपस्थित हैं।

(टिप्पणी - शब्दकोश या पर्यायकोश के लिए इस उद्घोषणा का क्या मतलब है, यह आप खुद समझें। अगर यह विश्वकोश होता, तब इस उद्घोषणा का कुछ अर्थ भी होता।)

इन विज्ञप्तियों से संकेत मिलता है कि कोशकार के अनुसार यह कोई सामान्य कोश नहीं है, बल्कि यह शब्दकोश भी है, पर्यायकोश भी है, पारिभाषिक कोश भी है, अभिव्यक्ति कोश भी है, ज्ञानकोश भी है, संस्कृतिकोश भी है, धर्मकोश भी है तथा इसके अलावा बहुत कुछ है। अरविंदजी के अनुसार इसमेंभारतीय और अंतरराष्ट्रीय शब्दमालिकाहै। यहाँभारतीय और अंतरराष्ट्रीय शब्द मालिकाका क्या आशय है - यह विचारणीय है।शब्दमालिकायाशब्दमालाकिसी एक भाषा की होती है - भारतीय या अंतरराष्ट्रीय तो नहीं।

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमेंअंतर्दृष्टिबहुत कम होती है, परंतु श्रम करने की अपार क्षमता उनमें होती है। ऐसे लोग श्रमशक्ति के बल पर ऐसे-ऐसे भारीभरक काम कर डालते हैं, जो ऊपर से देखने में बहुत भव्य लगते हैं, जबकि अंदरकुछ नहींयाकुछ खास नहींहोता। ऐसे लोग एक हीवाल्यूममें बहुत सारे कार्य कर डालने को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं; जबकि ऐसा करने से किसी भी एक कार्य के साथ न्याय़ नहीं हो पाता; कारण कि प्रत्येक कार्य की अपनी प्रकृति और पद्धति होती है। श्री अरविंदजी का यह काम मुझे ऐसा ही लगता है। अरविंद जी का यह कोश न तो शब्दकोश बन सका है, न पर्यायकोश, न पारिभाषिक कोश और न .....। सब कुछ गड्डमड्ड, अस्त-व्यस्त और तितर-बितर होकर रह गया है। इसमें ऐसा कुछ भीखासनहीं है, जो हिंदी के किसी शब्दकोश, पर्यायकोश या पारिभाषिक कोश में न मिलता हो। बल्कि अरविंदजी के अति उत्साह और अतिमहत्त्वाकांक्षा के कारण बहुत सारी गलतियाँ जरूरखासबनकर सामने आई हैं, जो इसकी विश्वसनीयता पर एक बड़ा प्रश्न-चिह्न लगाती हैं।

किसी भी भाषा के शब्दकोश या पर्यायकोश में सिर्फ उन शब्दों को ही स्थान दिया जाता है, जो उस भाषा में समान रूप में या विशिष्ट रूप में, बोलचाल में या साहित्य, कला, संस्कृति, विज्ञान आदि क्षेत्रों में प्ररुक्त होते हैं या कभी प्रयुक्त होते थे; भले ही आज उनका प्रयोग न हो रहा हो। पर्यायकोश में भी ऐसा ही होता है। शब्दकोश में शब्दों के अर्थ उनके प्रयोग के साथ दिए जाते हैं, जबकि पर्याय कोश में किसी भी शब्द के समस्त उपलब्ध सिर्फ पर्याय (समानार्थक) एक साथ दिए जाते हैं। पारिभाषिक कोश की रचना-प्रक्रिया इनसे भिन्न है। इसमें किसी भाषा के सामान्र व्रवहार में प्रयोग में आने वाले शब्दों से सीधा कोई वास्ता नहीं होता। इसमें तरह-तरह के विषयों की अवधारणाओं के नामाभिधान के लिए कोशकार नए-नए शब्दक्वाइनकरता है और उन्हें प्रयोग के लिए छोड़ देता है। नए-नए शब्दों के निर्माण की उसे पूरी छूट होती है। यह अलग बात है कि प्रयोगकर्ता उन्हें स्वीकार करते हैं या नहीं। डॉ. रघुवीर ने हजारों पारिभाषिक शब्द बनाए; परंतु आज उनमें से कुछ सौ ही शब्द चलन में हैं। शेष शब्द उनके कोशग्रंथ में दबकर रह गए हैं। परंतु शब्दकोश तथा पर्रार कोश के निर्माता का काम नए-नए शब्द बनाना नहीं होता। उसे तोसमस्त भाषा-व्रवहारमें प्ररुक्त होने वाले अधिकाधिक शब्दों को विभिन्न स्रोतों से संकलित करना होता है और उनके विविध अर्थों की छानबीन करके पूरे विवेक के साथ उन्हें उचित क्रम में व्रवस्थित करना होता है। रह अत्रंत जिम्मेदारी का काम होता है। इस काम में की गई जरा-सी भी गलती बड़े सामाजिक अपराध की कोटि में आती है, क्रोंकि कोशग्रंथों का उपरोग प्रमाण के रूप में किया जाता है। कोशकार की भूल सुधारने के लिए पाठक कहाँ जाएँगे!

संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जिसमें प्रकृति, प्रत्यय, उपसर्ग जैसे भाषिक तत्त्वों तथा संधि, समास जैसी शब्द-रचना प्रक्रिया के सहारे अनगिनत शब्द बनाए जा सकते हैं। अपने इस कोश में अरविंदजी ने संस्कृत की इस क्षमता का भरपूर (या मनमाना) उपयोग किया है। चूँकि वे एक अद्भुत और अद्वितीय कोश बनाने की महत्त्वाकांक्षा से तथा दूसरों से एकदम भिन्न कुछ नया कर गुजरने की भावना से प्रेरित होकर इस कार्य में प्रवृत्त हुए हैं; इसलिए उन्होंने अपने इस कोश में स्वनिर्मित शब्दों का तथा संस्कृत एवं अरबी-फारसी के अप्रचलित शब्दों का गंज खड़ा कर दिया है; और आत्ममुग्ध होकर यह घोषणा की है कि इस कोश में पौने पाँच लाख से भी अधिक शब्द हैं। विचारणीय है कि संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा का एक कोश है सर मोनिरर विलियम्सकृतसंस्कृत-इंग्लिश डिक्शेनरी। इस कोशग्रंथ में कुल 1 लाख, 80 हजार शब्द हैं। इसी तरह ज्ञानमंडल, वाराणसी, द्वारा प्रकाशितबृहत् हिंदी कोशमें कुल 1 लाख, 40 हजार, 3 सौ शब्द हैं तथा नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ग्यारह खंडों केहिंदी शब्दसागरमें कुल 2 लाख 7 हजार शब्द हैं। परंतु श्रीअरविदंजी द्वारा तैयार किए गए इस कोश में पौने पाँच लाख शब्द हैं। आखिर इतने शब्द आए कहाँ से? क्या हिंदी में पौने पाँच लाख शब्द चलन में हैं? एक बार फिर याद दिला दूँ कि शब्द क्वाइन करनापारिभाषिक शब्दकोशकारका काम है। वह चाहे तो पाँच लाख नहीं पचास लाख शब्द क्वाइन कर सकता है। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन यह काम अलग से होना चाहिए।

यहाँ थोड़े-से उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ - अंकतंत्र, अंकति, अंकपालि, अंकलोप, अंगारिका, अठंगारित, अंगारोद्केट, अंगुश्ताना, अंगुश्तरी, अंतिमतम, अंबरारंभ, अंशाधिकार, अंधानुयायिता, अकल्लीयत, अकारणतः, प्रांगार (कारबन), प्रांगरिक (जैव), प्रांगारीयम (कारबन), प्रातराश (ब्रेकफास्ट), अंबष्टा, अंतरालित, अंडरण, अंतसूची, अंशित, असितार्चि, अकृतबुद्धि, अक्षरपाठित्र, अचेतनक, अद्भुतालय, अधिप्रमाणन, अधीनित, आदेशिततः, अधिवासिता, अगिरौका, अताक्षिया आदि। पूरा कोश ऐसे शब्दों से भरा है।

आपको क्या लगता है, एक पर्यायकोश में ऐसे अप्रचलित तथा स्वनिर्मित शब्दों का क्या काम? किसी पारिभाषिक कोश में ऐसे शब्द हो सकते हैं। हालाँकि वहाँ भी ऐसे शब्दों का कोई उपयोग नहीं।

ऐसा काम खुद को जीनियस साबित करने का दावा ही तो है।

शब्द की अर्थ-निष्पत्ति की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं - अभिधा, लक्षणा तथा व्यंजना। शब्दकोश में दिए गए शब्दों का अर्थ-निर्णय अभिधा और लक्षणा के आधार पर किया जाता है। वहाँ व्यंजना का कोई काम नहीं होता। परंतु प्रस्तुत कोश में कोशकार ने शब्दों के अर्थ या पर्याय देते समय व्यंजना का भरपूर उपयोग किया है। इन दो वाक्यों पर ध्यान दीजिए - 1. लल्लू सीमा का आदमी है। 2. ठेकेदार ने पचास आदमी काम पर लगाए। इन दोनों वाक्यों मेंआदमीशब्द क्रमशःपतितथामजदूरके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। लेकन हम यह नहीं कह सकते किआदमीका अर्थपतिऔरमजदूरहोता है अथवापतिऔरमजदूरशब्दआदमीशब्द के पर्याय हैं। अरविंदजी ने अपने कोश में यही काम किया है- नहीं तो पौने 5 लाख शब्द आए कहाँ से?

प्रस्तुत कोश को कोशकार ने शब्दकोश तथा थेसारस (पर्यायकोश) दोनों कहा है; परंतु यह शब्दकोश कम थेसारस ज्यादा है। पर्यायकोश में एक मेन एंट्री के अंतर्गत समानार्थक शब्दों को संकलित किया जाता है। परंतु समानार्थकता की घोर अराजकता इस कोशग्रंथ में देखने को मिलती है। सिर्फ तीन उदाहरण रहा दे रहा हूँ –

1. अंतरंग = अंतरतम, अंतस्तम, अनन्य, अपना/अपनी, अभिन्न, अभिन्नहृदय, आंतिरक, आत्मीय, आपसी, एकजान, एकदिल, एकप्राण, एकरूप, एकात्मक, करीबी, खास, खुसूसी, गहरा/गहरी, गाढ़ा/गाढ़ी, घना/घनी, घनिष्ठ, घुला मिला/घुली मिली, जिगरी, दिली, नजदीकी, निकटतम, निकटस्थ, पक्का/पक्की, पुराना/पुरानी, प्यारा/प्यारी, प्रगाढ़, प्रिय, भीतरी, लँगोटिया, समीपतम, समीपी, सुप्रिय, सुबंधु, हार्दिक, हृद्य।

अंतरंगतम तथा परिवारीय सपर्याय हैं।

अंतरंगशब्द विशेषण है, जिसका अर्थ भीतरी या बहुत निकट होता है। सवाल यह है कि क्या इतने सारे अर्थ अंतरंग शब्द के होते हैं! इसी तरह –

2. वीर = अटल, अडिग, अभिमानी, अविचल, उद्भट, गर्वी, चंडविक्रम, चंडशक्ति, जानबाज, टेढ़ा/टेढ़ी, ढीठ, दिलवाला, दिलावर, दिलेर, धीरवीर, निडर, निर्भर, पक्का/पक्की, पराक्रमी, पुरुषोचित, प्रवीर, बंकिम, बली, बहादुर, बाँका, बाँकुरा/बाँकुरी, बीका/बीकी, मतवाला/मतवाली, मनचला/मनचली, मरदाना/मरदानी, महाविक्रम, महावीर, युद्धवीर, विक्रमशाली, विक्रमी, विक्रांत, विक्रांता, वीरकर्मा, वीरकेसरी, वीरव्रत, वीर्यवान, वीर्यशाली, शमशेरजंग, शुजा, शेरदिल, समरशूर, सरकस, सरफरोश, साहसी, सिंहविक्रम, सुभट, सवीर, हठीला/हठीली, हिम्मतवाला, हिम्मती।

ये सारे पर्याय दूरारूढ़ हैं या द्राविड़ प्रणायाम की उपज हैं। लगता है अरविंदजी नेपर्यायताको रबर का तंबू मान लिया है, जिसमें कुछ भी ठूँसा जा सकता है।

एक और नमूना देखिए –

3. घर = अड्डा, आँगन, आकर, आगार, आलय, आला, आवास, आशियाँ, आशियाना, आश्रय, आस्ताना, कटक, कदा, कानन, केत, केतन, क्वार्टर, क्षिता, खाना, खिता, गढ़, गृह, गेह, घोंसला, जगह, ठाम, ठिकाना, ठौर, डेरा, थड़ा, थाँह, थान, दर, दहलीज, देहरी, देहली, द्वार, द्वारा, धानी, धाम, निकाय, निकेत, निकेतन, निलय, निवास, निवेश, नीड़, पता, पीठ, पुर, बसेरा, बाड़ा, बाड़ी, बासा, बैत, भवन, मंजिल, मंदिर, मकाँ, मकान, मुकाम, रहवास, रिहाइश, रैजिडैंस, लोक, वास, वास्तु, विट, वेश, वेश्म, शाला, सदन, सद्म, सन्निवेश, सौध, स्थल, होम।

क्या ये सभी शब्द घर शब्द के पर्याय हैं? आप विचार कीजिए।

कोशग्रंथ मेंमेन एंट्रीके रूप में सिर्फ शब्द दिए जाते हैं, उनके रूप नहीं। जैसे - लड़काशब्द के दो रूप बनते हैं - लड़के तथा लड़कों। इन रूपों को शब्दकोश में नहीं रखा जाता; क्योंकि ये स्वतंत्र शब्द नहीं है।लड़कासे बनालड़कपनस्वतंत्र शब्द है, इसलिए इसे कोश में रखा जाता है। परंतु श्री अरविंदजी ने क्रियावाची शब्दों के पूर्णपक्ष (जिसे सामान्यतः भूतकाल कहा जाता है) के रूपों कोमेन एंट्रीके रूप में रखा है। जैसे - कहा/कही (कहना), उठा/उठी (उठना), जला/जली (जलना), चला/चली (चलना), टला/टली (टलना), बोला/बोली (बोलना), खाया/खाई (खाना), खेला/खेली (खेलना), खोजा/खोजी (खोजना), चढ़ा/चढ़ी (चढ़ना) आदि। कुछ क्रियाओं को छोड़कर बाकी सभी हिंदी क्रियाओं के पूर्णपक्ष के रूप इस कोश में मेन एंट्री के रूप में दिए गए हैं। कुछ क्रियाओं के पूर्णपक्ष के रूप का प्रयोग विशेषण के रूप में होता जरूर है। जैसे - कही बात, लिखी पुस्तक, पढ़ी किताब - मेंकही’, ‘लिखी’, ‘पढ़ीक्रियारूपों का प्रयोग कृदंत विशेषण के रूप में हुआ है; परंतुकही’, ‘लिखी’, ‘पढ़ीजैसे क्रियारूपों को शब्दकोशों में स्थान नहीं दिया जाता। लेकिन प्रस्तुत कोशकार महोदय ने कोश की शब्द-संख्या को बढ़ाने के लिए इन सारे रूपों को विशेषण मानकर उन्हें मेन एंट्री में स्थान दिया है।

इसी तरह किसी भी शब्दकोश मेंमेन एंट्रीशब्दों की होती है, शब्द-समूह या वाक्यांशों की नहीं। परंतु प्रस्तुत कोश में शब्द-समूह और वाक्यांशों की बड़ी संख्या मेंमेन एंट्रीकी गई है, जो कि बिल्कुल गलत है। उदाहरण देखिए - अंतर्धर्म विवाह = अकबरी विवाह; रेलगाड़ी में सवार होने का चबूतरा = रेलवे प्लेटफार्म; अकृत्रिम तालाब = झील; अकृष्ट भूमि = परती; अकेला एक आदमी = व्यक्ति; अक्कड़ दाढ़ = प्रज्ञादंत; अप्राकृतिक जलाशय = तालाब; खेल टोली = टीम; गो आगमन समय = गोधूलि वेला; गोरे मुँह का बंदर = अंगरेज; गोला लच्छा आदि बनाना = लपेटना; अस्पष्ट बात करने वाला = बहानेबाज; आनंदभंग कर्ता = कबाब में हड्डी; औपचारिक क्रिया कलाप = खटराग; खेल प्रतियोगिता = टक्कर; खोज यात्री सूची = अंतरिक्ष यात्री; गंगा यमुना संगम = इलाहाबाद; अपराध जगत सदस्य = अपराधी, गुंडा; अपराध जगत सरदार = उस्ताद; स्त्री वक्ष तंग परिधान = ब्लाउज; माध्यमिक अवस्था वाला = अंतरालीन; मानव शीष सर्प शरीर = नाग (नाग की कितनी सुंदर व्याख्या है!), कब्जा करने वाल = परराष्ट्रजेता। ये कुछ नमूने हैं, जो विचारणीर हैं कि यह कोशग्रंथ हमें क्या देता है!

कोशकार नेसपर्यायनाम की एक मौलिक उद्भावना की है; किंतु यह नहीं बताया है कि यह सपर्यायक्या है और पर्यायसे सपर्यायमें क्या भिन्नता है? ‘सपर्यायकी उपयोगिता क्या है? सपर्यायके उदाहरण देखिए –

1. गिरफ्तारी = दंड, कारागार, नजर कैद, सिपाही, हवालात;

2. गुंजन = कंपन;

3. गुंडा = ठग;

4. गिलास = कुल्हड़;

5. गिलहरी = नेवला;

6. गिरफ्तार = जमानती, निर्वासित, बेड़ीबंद;

7. अप्रतिष्ठित = अलोकप्रिय, एकाकी, गुमनाम, बदनाम, महत्त्वहीन, साधारण;

8. अप्रवादित = असंदिग्ध, तथ्यात्मक, प्रमाण्य, सत्यपूर्ण;

9. खट्टा = कसैला, खमीरा, चरपरा;

10. गँड़ासा = कसाई;

11. गँड़रिया = चरवाहा, चारागाह;

12. गंभीर = प्रौढ़, सौम्य;

13. विश्वामित्र = ताड़का, राम, वसिष्ठ;

14. राम = अयोध्या, कृष्ण, कौशल्या, ताड़का, दशरथ, दशहरा, धनुष-बाण, बाली, भरत, लक्ष्मण, लव कुश, रामायण, वनवास, विभीषण, विश्वामित्र, विष्णु, शत्रुघ्न, शिवधनुष, शूर्पणखा, सीता, सुग्रीव, स्वयंवर विवाह आदि।

इस आधार पर तो रामकथा से संबंधित सब कुछरामका सपर्यायहोगा।

रावणशब्द विपर्याय (विलोम) के रूप में दिया गया है। अगररावणराम का विपर्याय है, तो फिर शूर्पणखा सपर्यायकैसे?

अविक्रीत और कटपीस, अविचारणीय और असाध्य, अविभाज्य और युक्तिहीन, अविवाहित और एक, गुंडा और ठग, गिलहरी और नेवला, चींटी और दीमक, गिलास और कुल्हड़ में क्या सपर्यायताहै?

हिंदी के कोशग्रंथों में शब्द के लिंग का निर्देश अनिवार्य है; क्योंकि किसी शब्द के लिंग की पहचान का एकमात्र साधन कोश को माना जाता है। अंग्रेजी के कोशों में शब्द के साथ उसके लिंग का निर्देश नहीं होता; क्रोंकि अंग्रेजी भाषा में लिंग की पहचान कोई समस्या नहीं है। परंतु हिंदी, संस्कृत या कई अन्य भारतीय भाषाओं में शब्द के लिंग की पहचान का कोई सुनिश्चित नियम नहीं है। इसी नाते हमारे यहाँ लिंग की पहचान का अंतिम प्रमाण शब्दकोश को माना जाता है तथा शब्दकोशों में शब्द का लिंग-निर्देश प्रयोग तथा परंपरा के आधार पर किया जाता है। ऐसी स्थिति में कोशकार की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वह अपने कोशग्रंथ में किसी भी शब्द का लिंग-निर्देश पूरी सावधानी से करे। परंतु प्रस्तुत कोशग्रंथ में तो लिंग-निर्देश को एकदम गोल कर दिया गया है - पता नहीं क्यों! मेरी नजर में, इस कोश की यह बहुत बड़ी कमी है। अगर इसका जवाब कोशकार के अनुसार यह है कि यह तो पर्यायकोश है, तो भी बात नहीं बनती।पर्यायकोशमें भी लिंग-निर्देश होता है; और फिर, कोशकार के ही अनुसार यह सिर्फ पर्यायकोश नहीं है - शब्दकोश भी है।

कोश प्रमाण ग्रंथ होता है। इसलिए कोश-निर्माण बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है। हिंदी में चींटा और चींटी दो अलग-अलग कीट-प्रजातियों के नामों का बोध कराने वाले संज्ञा शब्द हैं। परंतु कोशकार नेचींटाकोबड़ी चींटीबताया है-जबकिचींटाऔरचींटीशब्दों का आपस में कोई संबंध नहीं है। न तोचींटा’ ‘चींटीका पुल्लिंग है और नचींटी’ ‘चींटाका स्त्रीलिंग है; चींटा’ ‘बड़ी चींटीहै, और न चींटी छोटा चींटा है।

हिंदी में एक शब्द चलता हैजबानी’; जो कोश मेंमुँहजबानीलिखा गया है।

इसी तरहउगाहीका अर्थ होता है रुपये-पैसे की वसूली;

परंतु कोश में वसूली के साथ-साथ आदान, उग्रहण, उद्ग्रहण, उद्धार, ग्रह्य, प्राप्ति, बरामदगी, वसूलयाबी दिया गया है।

उचक्काका अर्थ दुर्जन किया गया है।

इसी तरह उग्रता (अत्युत्साह), उग्रवादी (अनुदार, कट्टर, लड़ाका, लड़ाकू), अच्छा (कल्याण-प्रेमी, सदाचारी), अचेत (सुस्त, देहातीत),

गृहयुद्ध (भ्रातृयुद्ध), भ्रामक (असमाधान्य, उकसाऊ), कृतज्ञ (भारग्रस्त, दयाभारग्रस्त, पुलकित, प्रसन्न), कृषीय (ग्रमीण, देहाती),

कपास (वस्त्रद), कब्र (स्मारक), कप्तान (निदेशक, प्रबंधक, मुखिया), खच्चर (अड़ंगेबाज, मूर्ख), खटराग (धर्मधक्का, पचारिकता, फीताशाही, सरदर्द), भगवान (उपदेशक, मठाधीश), वयस्क (विवाह्य, बड़ा/बड़ी, भरा-पूरा, वर्धकाय, विकसित), वर (लड़का), विषधर (विषाक्त), विषालु (दुर्गंधपूर्ण), विसंगत (असहमत), विषवमन (गालीगलौज), विषाक्त (गंदा, दुष्ट, बुरा), सहोदर (अपना, असली, आत्मीय), सहानुभूति (मित्रता, मृत्युसंवेदना), साँड़ (अपालतू), अपालतू (अग्राम्य, अदम्य, खुला/खुली, टेढ़ा/टेढ़ी, दरिंदा, परिया, पाशविक, सड़कछाप, सहराई, विकट, लावारिश), सांसद् (कांग्रेसमेन), गीलापन (फिसलाहट), गिरहबाज (कसरतिया), गीजर (गरम पानी स्रोत), गुमनाम (उपनाम), गुरुआनी (अध्यापिका) (टिप्पणी = गुरुआनी का अर्थ तो गुरुपत्नी होता है), घमंड (आत्मप्रशंसा, डींग), अर्हता (दक्षता, माद्दा, संगतता, समहर्ता), अशांत (अपालतू, अतृप्त), आदान-प्रदान (खरीद ऑर्डर), अकोमल (सुगठितकाय), अक्तूबर (मास सूची), अक्रम (अप्रासंगिक), अप्रसन्न (कृतघ्न, अतृप्त), आटोमैटिक = यंत्रचालित; (टिप्पणी = होता हैस्वचालित’), शासक = क्षत्रिय, राजनेता, शासन = स्मृतिग्रंथ, शासन स्थापन = परराष्ट्र जय,     शास्त्र = धर्मग्रंथ, पुस्तक, शासनांतर्गत = पराधीन। मठाधीशीय = आचार्यीय, कुलाचार्यीय, धर्माचार्यीय, धर्माधिकारीय, पीठाधीशीय, व्यासीय (टिप्पणी - आचार्य, धर्माचार्य, कुलाचार्य, धर्माधिकारी तथा व्यास क्या मठाधीश या पीठाधीश के पर्याय हैं?), जंगल = शौचस्थान, जंगली = अकृषित (अनाज), रुधिरपिपासु, जँगला = कटहरा, जाफरी (टिप्पणी = छड़ या जाली लगी हुई खिड़की - बृहत् हिंदी कोश),

वन = द्रुमालय, द्रुमिणी, वुड; बीहड़ = क्षमतातीत; बीभत्सरस = घृणा वर्णन, घृणोत्पादन। और अधिक उदाहरणों के लिए कृपया कोशग्रंथ देखें।

कुछ शब्दों की अद्भुत व्याख्राएँ देखिए

1. ब्लाउज = स्त्रीवक्ष तंग परिधान;

2. गीजर = गरम पानी स्रोत;

3. रेलवे प्लेटफार्म = रेलगाड़ी में सवार होने का चबूतरा;

4. अंगरेज = गोरे मुँह का बंदर;

5. गुंडा = अपराध जगत सदस्य;

6. लुभाव = आकर्षक अतिरिक्त माल;

7. ऑक्सीजन = रासायनिक तत्त्व सूची;

8. गोपीचंदन = वैष्णवमुख लेपन मिट्टी।

बहुत सारे ऐसे शब्द हैं, जिनके लिए स्वनिर्मित पर्यायों की जरूरत नहीं होती। जैसे - आत्मकथा। अंग्रेजी केऑटोबारोग्राफीके लिए हिंदी में यह शब्द सुस्थिर है। परंतु इसके लिए भी कोशकार ने अपनी कहानी, आपबीती, डायरी (टिप्पणी = डायरी को हम आत्मकथा कैसे कहें!), तुजुक, मेरी कहानी, राम कहानी, संस्मरण (टिप्पणी = अब कोशकार की समझ को क्रा कहिएगा! सभी जानते हैं कि आत्मकथा और संस्मरण दो भिन्न विधाएँ हैं।), स्वकथा, स्वजीवनी।

एक शब्द हैसाक्षरता’; अरविंदजी ने जिसका अर्थ दिया है

अक्षरज्ञान, अलिफ बे पे (उर्दू), एबीसी, कखग (हिंदी), प्रारंभिक शिक्षा, लिपिज्ञान।

इसका विलोम दिया है - असाक्षरता।

साक्षरताअंग्रेजी केलिटरेसीशब्द के लिए हिंदी में चलता है, जिसका अर्थ है पढ़ने-लिखने की क्षमता। ऐसे शब्दअवधारणामूलक शब्दकहे जाते हैं। इस तरह के शब्दों को हम भाषाविज्ञान की शब्दावली मेंलोन ट्रान्सलेशनकहते हैं। ऐसे शब्दों के अनेक पर्याय नहीं चलते; ऐसे शब्द मात्र मूल शब्द की अवधारणा को व्यक्त करते हैं। हम उनके मनमाने अर्थ या पर्याय नहीं दे सकते। परंतु अरविंदजी को तो अपनी मौलिक उद्भावना प्रदर्शित करनी है।साक्षरतामेंअक्षरशब्द देखते ही झट से उन्होंने रबर के तंबू के अंदर अलिफ बे पे (उर्दू), एबीसी (अंग्रेजी), कखग (हिंदी) तथा लिपि को घसीट लिया।

(कु)तर्क के लिए यह कहा जा सकता है कि साक्षरता के लिए अलिफ बे पे, एबीसी, कखग जैसे अक्षरों का ज्ञान तो जरूरी है। माना; परंतु एबीसी, कखग .... कोसाक्षरताशब्द का पर्याय तो नहीं माना जा सकता। ऐसे हीसाक्षरताका विलोम शब्द हिंदी मेंनिरक्षरताचलता है। परंतु अरविंदजी ने इसके लिएअसाक्षरताशब्द दिया है।

किसी अवधारणा को व्यक्त करने के लिए जब अपने पास शब्द मौजूद न हो, तब हम नया शब्द बनाते हैं या अपनाते हैं।साक्षर-निरक्षर’, ‘साक्षरता-निरक्षरताका एक सहज युग्म हिंदी में है।

उदाहरण तो इतने सारे हैं कि यहाँ देना संभव नहीं; फिर भीरोनाक्रिया के तंबू के नीचे घुसाए गए पर्यायों (?) पर नजर डालिए –

रोना - अश्रुपात करना, आँख गीली करना, आँख डबडबाना, आँख तर होना, आँसू आना, आँसू चूना, आँसू टपकना, आँसू बहाना, आर्तनाद करना, आह भरना, उसाँस लेना, कराहना, कलपना, चिग्घाड़ना, चीखना, चीत्कार करना, छलछलाना, टूटना, डबडबाना, दहाड़ मारना, दुखी होना, फफकना, फैलना, बिखरना, बिसूरना, मचलना, विलाप करना, शोक करना, हाय हाय करना। क्या ये सभी संयुक्त क्रियाएँरोनाक्रिया के पर्याय हैं?

शब्दकोश में शब्द की एंट्री का एक नियम यह है किअनेकार्थकशब्द के विविध अर्थ अलग-अलग 1, 2, 3 ... करके दिए जाते हैं। परंतु अरविंदजी के इस कोशग्रंथ में ऐसा नहीं किया गया है। एक शब्द के सारे अर्थ एक साथ पर्यायों के रूप में दे दिए गए हैं। जैसे

अंक - अक्षर, चिह्न, गोदी, दाग, शरीर, संख्या आदि।

अंब - आम, जल, माता। होना चाहिए- 1. आम, 2. जल, 3. माता।

कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनकी वर्तनी तो समान होती है; परंतु वे अलग-अलग स्रोतों के शब्द होते हैं। इसलिए कोश में उनकी एंट्री भी अलग-अलग होती है। जैसे

कुल1 = वंश, खानदान, कुटुंब;

कुल2 = समस्त, समग्र, रोग।

इनमें पहलाकुलसंस्कृत स्रोत का है तथा दूसराकुलअरबी स्रोत का।

परंतु अरविंदजी ने एक ही एंट्री में सारे अर्थ दे दिए हैं - कुटुब, केवल, गोत्र, वंश, सकल, संपूर्ण।

कामशब्द के भी दो स्रोत हैं

काम1 (तत्सम) = कामदेव, इच्छा, रति, प्रेम आदि;

काम2 (तद्भव - कर्म से काम) = कार्य, कर्तव्य, उद्देश्य।

अरविंदजी ने एक ही एंट्री मेंकामशब्द के सारे अर्थों को दे दिया है - काम = उद्देश्य, उद्योग, उपयोग, कढ़ाई, कर्तव्य, कर्म, कामदेव, नौकरी, पद, प्रेम, बनावट, वासना, होमवर्क आदि।

क्या ये सभी एक हीकामशब्द के अर्थ या पर्याय हैं?

अरविंदजी ने कोश-निर्माण की इस पद्धति की पूरी तरह से अवहेलना की है। उन्होंने समान ध्वनि वाले भिन्नस्रोती शब्दों के विविध अर्थों को एक साथ देकर उन्हें पर्याय के एक सूत्र में पिरो दिया है।

स्थानाभाव के कारण अधिक उदाहरण देना संभव नहीं है। पूरा कोश ही उदाहरण है।

ऐसे कोश और कोशकार कोहिंदी अकादमीने पुरस्कार के किन मानदंडों के तहतशलाका सम्मानसे सम्मानित किया है?

 

डॉ. योगेन्द्रनाथ मिश्र

 

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